दिनांक 8-8-88 है एकता में बल की गवाह-कुलदीप सिंह तंवर
8:8:1988---8:8:2000
8-8-88
महज़ एक संख्या या तारीख़ नहीं
एक इतिहास है !
8-8-88 ये महज़ एक संख्या नहीं है। न इसका जिक्र यहां सिर्फ इसलिए किया जा रहा है कि इसमें 8 की संख्या प्रमुख है। हिमाचल या शायद देश के अधिकारी/कर्मचारी संगठनों के इतिहास में एक ऐतिहासिक दिन, महीना और साल है। एक ऐसे आंदोलन का चरम, जब वीरभद्र सिंह जी की सरकार में तत्कालीन वन मंत्री प्रो. चंद्रकुमार के साथ न सिर्फ अपने अधिकारों के लिए बल्कि वन नीति और अन्य नीतिगत मुद्दों पर वार्ता हो रही रही थी। माहौल तनावपूर्ण था और संगठन आर-पार के फैसले औऱ निर्णायक लड़ाई का मन बना कर ही वार्ता में उतरे थे। वन विभाग और वन निगम की 9 एसोसिएशनस और यूनियन्स जिसमें अधिकारियों से लेकर चतुर्थ श्रेणी के संगठन एक साथ शामिल थे। यह इतिहास में पहली बार था जब अधिकारी-कर्मचारी एक मंच और एक आवाज़ में एक साथ आये थे। अपने संकीर्ण हितों को दरकिनार करके प्रदेश में जनहित की वननीति बनाने जिसमें रेलवे के लिए लकड़ी सप्लाई से लेकर खैर और बिरोज़ा नीति के साथ-साथ पुलिस और राजस्व के साथ रैंक बराबरी के मुद्दे शामिल थे, साथ संघर्ष कर रहे थे।
तर्क और एकजुटता का दबाव इतना था कि सरकार को झुकना पड़ा और सरकार और संगठनों के बीच लिखित समझौता हुआ। उस आंदोलन ने प्रदेश को जुझारू कर्मचारी नेता दिए जिन्होंने अगले दशकों में प्रदेश के कर्मचारियों को कुशल और सशक्त नेतृत्व दिया।
लेकिन इस दबाव का कारण सिर्फ 9 संगठनों का दबाव नहीं था बल्कि इस आंदोलन को प्रदेश के 100 से अधिक संगठनों का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समर्थन था। यह भी इतिहास में पहली बार हुआ था जब उत्तरी भारत के विभिन्न संगठनों की कॉन्फेडरेशन बनी थी और सैकड़ों साथियों ने पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार के सामने ज़बरदस्त प्रदर्शन किया था।
वो समय था जब कर्मचारी संगठनों की ताकत सरकारों को जनहित में काम करने के लिए बाध्य करती थी। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो गर्व महसूस होता है कि मैं उस दौर के संगठनों का सक्रिय हिस्सा रहा। मगर इस बात को लेकर खेद भी होता है कि आज कर्मचारी/अधिकारी संगठनों की ताकत कमज़ोर हुई है। 1991 के बाद नवउदारवादी नीतियों के आने के बाद से देश में लगातार ट्रेड यूनियन आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश होती रही। यूनियनों के संघर्ष करने का दायरा सिकुड़ा है और कुछ संगठन केवल तबादलों को मैनेज करने या सरकारों की खिदमत और खुशामद तक सीमित हो चुके हैं। सरकारों के बदलते ही संगठनों का नेतृत्व भी बदल जाता है। कर्मचारियों की एक ही श्रेणी में कई गुट, के धड़े हैं।
आज जब सार्वजनिक क्षेत्र पर जबरदस्त हमला है। श्रम कानूनों पर हमला है, सार्वजनिक सेवाओं का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है, जनहित के कानूनों को जिन्हें हमारी पिछली पीढ़ियों ने लंबे संघर्षों के बाद हासिल किया था उन्हें कमज़ोर किया जा रहा है, शिक्षा, स्वास्थ्य, काम के घंटे संगठित (unionize) होने का अधिकार और ऐसे कितने ही और हक छीने जा रहे हैं उस वक़्त ट्रेड यूनियन आंदोलन का कमजोर होना भावी पीढ़ियों के हित में नहीं है। इसके लिए हमारी अगली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी।
इस वक़्त संगठनों को न केवल अपने अधिकारों के लिए लड़ना है बल्कि वैज्ञानिक, पारदर्शी तबादला नीति के लिए एकजुट होना चाहिए जिसके अभाव में भ्रष्ट राजनेता कर्मचारियों को धमकाते हैं। यूनियनें जनहित और नीतिगत मुद्दों के लिए भी संघर्ष करें ताकि सार्वजनिक क्षेत्र के खिलाफ किये जा रहे दुष्प्रचार को रोका जा सके। सरकारी क्षेत्र को बचाया जा सके न सिर्फ अपने लिए बल्कि आम जनता के हित में भी यही है।
डॉ. कुलदीप सिंह तंवर
Chairman-Action Committee
H.P. Forest Federation--{ 1988 }
General Secretary
I.F.S. Association. H.P.
2004-05.
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